रवीश कुमार का प्राइम टाइम : कश्मीर को लोकतंत्र चाहिए, आइए बात कीजिए
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जंगल जंगल बात चली है, पता चला है, चड्डी पहन कर लोकतंत्र खिला है, पता चला है. इस जोड़-घटाव के लिए गुलज़ार साहब से माफ़ी लेकिन वाकई यह दृश्य हैरान करने वाला है कि लोकतंत्र चड्डी पहनकर खिला-खिला और खुला खुला घूमना चाहता है. बीस साल बाद जब विद्वान इन पंक्तियों की विवेचना करेंगे तब इस बात का उल्लेख अवश्य करेंगे कि एंकर ने लोकतंत्र को सूट-बूट में क्यों नहीं देखा, चड्डी में क्यों देखा. यही नहीं प्रस्तुत प्रस्तोता पर यह दोष लगेगा कि दिल्ली से दूरी और दिल से दूरी मिटाने वाली बैठक में कश्मीरी पंडितों का ज़िक्र तक नहीं आया तो सबसे पहले उनका ही ज़िक्र क्यों किया. इसके उत्तर के लिए यू ट्यूब से कश्मीर पर गोदी मीडिया के किसी भी डिबेट का वीडियो निकाल कर देखना होगा, आपको ज्यादातर डिबेट में कश्मीर की चर्चा में कश्मीरी पंडित भी मोर्चे संभाले मिलेंगे और उन्हीं के नाम से डिबेट में हवाबाज़ी होती मिलेगी. लेकिन धारा 370 हटाने के दो साल बाद दिल्ली में पहली बैठक होती है और उसमें कश्मीरी पंडितों का अलग से राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं होता है, उनका ज़िक्र तक नहीं होता है, तब प्रस्तुत प्रस्तोता सबसे पहले ज़िक्र करता है. वैसे सूत्रों के हवाले के नाम से जो व्हाट्सपीय सूचना पत्रकारों को भेजी गई उसे देख कर मैं तुरंत ही समझ गया कि बैठक लोकतंत्र के लिए थी.
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