रवीश कुमार का प्राइम टाइम : क्या जबरदस्ती विश्वनायक दिखने की सोच के बंधक हो गए हैं हम?
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हर बात में इतिहास का नायक बन जाने, ख़ुद वैसा काम न कर पाने पर किसी नायक की सबसे ऊंची मूर्ति बनवा देने की मानसिकता को वही समझ सकता है जो छपास रोग को जानता है. पत्रकारिता के भीतर इस रोग की चर्चा ऐसे लोगों के संदर्भ में की जाती है जो हर बात में छपना चाहते हैं. इसे ही छपास रोग कहते हैं. इसी बीमारी का एक इंग्लिश नाम है हेडलाइन सीकर. कुछ ऐसा देखो या करो जो हेडलाइन बन जाए. इस मानसिकता को सबसे सरल और छोटी कहानी में पकड़ा है यशपाल ने। कहानी का नाम है अख़बार में नाम. आज के प्राइम टाइम को आप अख़बार में नाम और उसके किरदार गुरदास के बग़ैर नहीं समझ सकेंगे.
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