ये छेड़छाड़ , ये आवारगी , और ये दास्ताँ-ए-मोहब्बत उस रोज़ उस रात की तन्हाई की है दोस्तों,जब हम भी मूड में थे और वो भी........
......मगर... with full dedication.
तू वो ग़ज़ल है मेरी
जिसमें तेरा होना तय है तू वो नज्म है मेरी
जिसमें आज भी तेरी मौजूदगी तय है
इसलिये नहीं... कि...
तू मेरी दस्तरस में है
बल्कि इसलिये...कि...
तू आज भी मेरी नस - नस में है
इसलिए हो चाहे ये कितना ही लंबा सफ़र
ना थकेगा ना रुकेगा ये कारवाँ
ना छूटेगी ये डगर
क्यों...
कैसे भुला पाउंगा उस कठिन वक़्त को...कैसे भुला पाउंगा तुम्हारे उस असहनीय कष्ट को...जब तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में था...और तुम अंतिम साँस लेने की तैयारी कर रही थीं...मगर फ़िर भी मुझसे कुछ कहना चाह रहीं थीं...क्योंकि तुम काल के हाथों विवश होकर हमेशा हमेशा के लिये ना चाहते हुए भी मुझसे दूर जा रहीं...