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अ॒मी य ऋक्षा॒ निहि॑तास उ॒च्चा नक्तं॒ ददृ॑श्रे॒ कुह॑ चि॒द्दिवे॑युः। अद॑ब्धानि॒ वरु॑णस्य व्र॒तानि॑ वि॒चाक॑शच्च॒न्द्रमा॒ नक्त॑मेति॥ - ऋग्वेद 1.24.10
पदार्थ -
हम पूछते हैं कि जो ये (अमी) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष (ऋक्षाः) सूर्य्यचन्द्रतारकादि नक्षत्र लोक किसने (उच्चाः) ऊपर को ठहरे हुए (निहितासः) यथायोग्य अपनी-अपनी कक्षा में ठहराये हैं, क्यों ये (नक्तम्) रात्रि में (ददृश्रे) देख पड़ते हैं और (दिवा) दिन में (कुहचित्) कहाँ (ईयुः) जाते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर-जो (वरुणस्य) परमेश्वर वा सूर्य के...
Published 07/18/22
श॒तं ते॑ राजन्भि॒षजः॑ स॒हस्र॑मु॒र्वी ग॑भी॒रा सु॑म॒तिष्टे॑ अस्तु। बाध॑स्व दू॒रे निर्ऋ॑तिं परा॒चैः कृ॒तं चि॒देनः॒ प्र मु॑मुग्ध्य॒स्मत्॥ - ऋग्वेद 1.24.9
पदार्थ -
(राजन्) हे प्रकाशमान प्रजाध्यक्ष वा प्रजाजन ! जिस (भिषजः) सर्व रोग निवारण करनेवाले (ते) आपकी (शतम्) असंख्यात औषधि और (सहस्रम्) असंख्यात (गभीरा) गहरी (उर्वी) विस्तारयुक्त भूमि है, उस (निर्ऋतिम्) भूमि की (त्वम्) आप (सुमतिः) उत्तम बुद्धिमान् हो के रक्षा करो, जो दुष्ट स्वभावयुक्त प्राणी के (प्रमुमुग्धि) दुष्ट कर्मों को छुड़ादे और जो...
Published 07/17/22
उ॒रुं हि राजा॒ वरु॑णश्च॒कार॒ सूर्या॑य॒ पन्था॒मन्वे॑त॒वा उ॑। अ॒पदे॒ पादा॒ प्रति॑धातवेऽकरु॒ताप॑व॒क्ता हृ॑दया॒विध॑श्चित्॥ - ऋग्वेद 1.24.8
पदार्थ -
(चित्) जैसे (अपवक्ता) मिथ्यावादी छली दुष्ट स्वभावयुक्त पराये पदार्थ (हृदयाविधः) अन्याय से परपीड़ा करनेहारे शत्रु को दृढ़ बन्धनों से वश में रखते हैं, वैसे जो (वरुणः) (राजा) अतिश्रेष्ठ और प्रकाशमान परमेश्वर वा श्रेष्ठता और प्रकाश का हेतु वायु (सूर्याय) सूर्य के (अन्वेतवै) गमनागमन के लिये (उरुम्) विस्तारयुक्त (पन्थाम्) मार्ग को (चकार) सिद्ध करते (उत)...
Published 07/17/22
अ॒बु॒ध्ने राजा॒ वरु॑णो॒ वन॑स्यो॒र्ध्वं स्तूपं॑ ददते पू॒तद॑क्षः। नी॒चीनाः॑ स्थुरु॒परि॑ बु॒ध्न ए॑षाम॒स्मे अ॒न्तर्निहि॑ताः के॒तवः॑ स्युः॥ - ऋग्वेद 1.24.7
पदार्थ -
हे मनुष्यो ! तुम जो (पूतदक्षः) पवित्र बलवाला (राजा) प्रकाशमान (वरुणः) श्रेष्ठ जलसमूह वा सूर्य्यलोक (अबुध्ने) अन्तरिक्ष से पृथक् असदृश्य बड़े आकाश में (वनस्य) जो कि व्यवहारों के सेवने योग्य संसार है, जो (ऊर्ध्वम्) उस पर (स्तूपम्) अपनी किरणों को (ददते) छोड़ता है, जिसकी (नीचीनाः) नीचे को गिरते हुए (केतवः) किरणें (एषाम्) इन संसार के...
Published 07/15/22
न॒हि ते॑ क्ष॒त्रं न सहो॒ न म॒न्युं वय॑श्च॒नामी प॒तय॑न्त आ॒पुः। नेमा आपो॑ अनिमि॒षं चर॑न्ती॒र्न ये वात॑स्य प्रमि॒नन्त्यभ्व॑म्॥ - ऋग्वेद 1.24.6
पदार्थ -
हे जगदीश्वर ! (क्षत्रम्) अखण्ड राज्य को (पतयन्तः) इधर-उधर चलायमान होते हुए (अमी) ये लोक-लोकान्तर (न) नहीं (आपुः) व्याप्त होते हैं और न (वयः) पक्षी भी (न) नहीं (सहः) बल को (न) नहीं (मन्युम्) जो कि दुष्टों पर क्रोध है, उसको भी (न) नहीं व्याप्त होते हैं (न) नहीं ये (अनिमिषम्) निरन्तर (चरन्तीः) बहनेवाले (आपः) जल वा प्राण आपके सामर्थ्य को...
Published 07/14/22
भग॑भक्तस्य ते व॒यमुद॑शेम॒ तवाव॑सा। मू॒र्धानं॑ रा॒य आ॒रभे॑॥ - ऋग्वेद 1.24.5
पदार्थ -
हे जगदीश्वर ! जिससे हम लोग (भगभक्तस्य) जो सब के सेवने योग्य पदार्थों का यथा योग्य विभाग करनेवाले (ते) आपकी कीर्त्ति को (उदशेम) अत्यन्त उन्नति के साथ व्याप्त हों कि उसमें (तव) आपकी (अवसा) रक्षणादि कृपादृष्टि से (रायः) अत्यन्त धन के (मूर्द्धानम्) उत्तम से उत्तम भाग को प्राप्त होकर (आरभे) आरम्भ करने योग्य व्यवहारों में नित्य प्रवृत्त हों अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिये नित्य प्रयत्न कर...
Published 07/13/22
यश्चि॒द्धि त॑ इ॒त्था भगः॑ शशमा॒नः पु॒रा नि॒दः। अ॒द्वे॒षो हस्त॑योर्द॒धे॥ - ऋग्वेद 1.24.4
पदार्थ -
हे जीव ! जैसे (अद्वेषः) सब से मित्रतापूर्वक वर्तनेवाला द्वेषादि दोषरहित मैं ईश्वर (इत्था) इस प्रकार सुख के लिये (यः) जो (शशमानः) स्तुति (भगः) और स्वीकार करने योग्य धन है, उसको (ते) तेरे धर्मात्मा के लिये (हि) निश्चय करके (हस्तयोः) हाथों में आमले का फल वैसे धर्म के साथ प्रशंसनीय धन को (दधे) धारण करता हूँ और जो (निदः) सब की निन्दा करनेहारा है, उसके लिये उस धनसमूह का विनाश कर देता हूँ, वैसे तुम...
Published 07/12/22
अ॒भि त्वा॑ देव सवित॒रीशा॑नं॒ वार्या॑णाम्। सदा॑वन्भा॒गमी॑महे॥ - ऋग्वेद 1.24.3
पदार्थ -
हे (सवितः) पृथिवी आदि पदार्थों की उत्पत्ति वा (अवन्) रक्षा करने और (देव) सब आनन्द के देनेवाले जगदीश्वर ! हम लोग (वार्य्याणाम्) स्वीकार करने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों की (ईशानम्) यथायोग्य व्यवस्था करने (भागम्) सब के सेवा करने योग्य (त्वा) आपको (सदा) सब काल में (अभि) (ईमहे) प्रत्यक्ष याचते हैं अर्थात् आप ही से सब पदार्थों को प्राप्त होते हैं॥
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(भाष्यकार -...
Published 07/11/22
अ॒ग्नेर्व॒यं प्र॑थ॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑। स नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात्पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च॥ - ऋग्वेद 1.24.2
पदार्थ -
हम लोग जिस (अग्ने) ज्ञानस्वरूप (अमृतानाम्) विनाश धर्मरहित पदार्थ वा मोक्ष।प्राप्त जीवों में (प्रथमस्य) अनादि विस्तृत अद्वितीय स्वरूप (देवस्य) सब जगत् के प्रकाश करने वा संसार में सब पदार्थों के देनेवाले परमेश्वर का (चारु) पवित्र (नाम) गुणों का गान करना (मनामहे) जानते हैं, (सः) वही (नः) हमको (मह्यै) बड़े-बड़े गुणवाली (अदितये) पृथिवी के बीच में...
Published 07/10/22
कस्य॑ नू॒नं क॑त॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑। को नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात्पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च॥ - ऋग्वेद 1.24.1
पदार्थ -
हम लोग (कस्य) कैसे गुण कर्म स्वभाव युक्त (कतमस्य) किस बहुतों (अमृतानाम्) उत्पत्ति विनाशरहित अनादि मोक्षप्राप्त जीवों और जो जगत् के कारण नित्य के मध्य में व्यापक अमृतस्वरूप अनादि तथा एक पदार्थ (देवस्य) प्रकाशमान सर्वोत्तम सुखों को देनेवाले देव का निश्चय के साथ (चारु) सुन्दर (नाम) प्रसिद्ध नाम को (मनामहे) जानें कि जो (नूनम्) निश्चय करके (कः)...
Published 07/09/22
सं मा॑ग्ने॒ वर्च॑सा सृज॒ सं प्र॒जया॒ समायु॑षा। वि॒द्युर्मे॑ अस्य दे॒वा इन्द्रो॑ विद्यात्स॒ह ऋषि॑भिः॥ - ऋग्वेद 1.23.24
पदार्थ -
मनुष्यों को योग्य है कि जो (ऋषिभिः) वेदार्थ जाननेवालों के (सह) साथ (देवाः) विद्वान् लोग और (इन्द्रः) परमात्मा (अग्ने) भौतिक अग्नि (वर्चसा) दीप्ति (प्रजया) सन्तान आदि पदार्थ और (आयुषा) जीवन से (मा) मुझे (संसृज) संयुक्त करता है, उस और (मे) मेरे (अस्य) इस जन्म के कारण को जानते और (विद्यात्) जानता है, इससे उनका संग और उसकी उपासना नित्य...
Published 07/08/22
आपो॑ अ॒द्यान्व॑चारिषं॒ रसे॑न॒ सम॑गस्महि। पय॑स्वानग्न॒ आ ग॑हि॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा॥ - ऋग्वेद 1.23.23
पदार्थ -
हम लोग जो (रसेन) स्वाभाविक रसगुण संयुक्त (आपः) जल हैं, उनको (समगस्महि) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं, जिनसे मैं (पयस्वान्) रसयुक्त शरीरवाला होकर जो कुछ (अन्वचारिषम्) विद्वानों के अनुचरण अर्थात् अनुकूल उत्तम काम करके उसको प्राप्त होता और जो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (मा) तुझको इस जन्म और जन्मान्तर अर्थात एक जन्म से दूसरे जन्म में (आगहि) प्राप्त होता है अर्थात् वही पिछले जन्म में...
Published 07/07/22
इ॒दमा॑पः॒ प्र व॑हत॒ यत्किं च॑ दुरि॒तं मयि॑। यद्वा॒हम॑भिदु॒द्रोह॒ यद्वा॑ शे॒प उ॒तानृ॑तम्॥ - ऋग्वेद 1.23.22
पदार्थ - मैं (यत्) जैसा (किम्) कुछ (मयि) कर्म का अनुष्ठान करनेवाले मुझमें (दुरितम्) दुष्ट स्वभाव के अनुष्ठान से उत्पन्न हुआ पाप (च) वा श्रेष्ठता से उत्पन्न हुआ पुण्य (वा) अथवा (यत्) अत्यन्त क्रोध से (अभिदुद्रोह) प्रत्यक्ष किसी से द्रोह करता वा मित्रता करता (वा) अथवा (यत्) जो कुछ अत्यन्त ईर्ष्या से किसी सज्जन को (शेपे) शाप देता वा किसी को कृपादृष्टि से चाहता हुआ जो (अनृतम्) झूँठ (उत) वा...
Published 07/06/22
आपः॑ पृणी॒त भे॑ष॒जं वरू॑थं त॒न्वे॒३॒॑ मम॑। ज्योक् च॒ सूर्यं॑ दृ॒शे॥ - ऋग्वेद 1.23.21
पदार्थ -
मनुष्यों को योग्य है कि सब पदार्थों को व्याप्त होनेवाले प्राण (सूर्य्यम्) सूर्यलोक के (दृशे) दिखलाने वा (ज्योक्) बहुत काल जिवाने के लिये (मम) मेरे (तन्वे) शरीर के लिये (वरूथम्) श्रेष्ठ (भेषजम्) रोगनाश करनेवाले व्यवहार को (पृणीत) परिपूर्णता से प्रकट कर देते हैं, उनका सेवन युक्ति ही से करना चाहिये॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार:...
Published 07/05/22
अ॒प्सु मे॒ सोमो॑ अब्रवीद॒न्तर्विश्वा॑नि भेष॒जा। अ॒ग्निं च॑ वि॒श्वश॑म्भुव॒माप॑श्च वि॒श्वभे॑षजीः॥ - ऋग्वेद 1.23.20
पदार्थ -
जैसे यह (सोमः) ओषधियों का राजा चन्द्रमा वा सोमलता (मे) मेरे लिये (अप्सु) जलों के (अन्तः) बीच में (विश्वानि) सब (भेषजा) ओषधि (च) तथा (विश्वशंभुवम्) सब जगत् के लिये सुख करनेवाले (अग्निम्) बिजुली को (अब्रवीत्) प्रसिद्ध करता है, इसी प्रकार (विश्वभेषजीः) जिनके निमित्त से सब ओषधियाँ होती हैं, वे (आपः) जल भी अपने में उक्त सब ओषधियों और उक्त गुणवाले अग्नि को जानते...
Published 07/05/22
अ॒प्स्व१न्तर॒मृत॑म॒प्सु भे॑ष॒जम॒पामु॒त प्रश॑स्तये। देवा॒ भव॑त वा॒जिनः॑॥ - ऋग्वेद 1.23.19
पदार्थ -
हे (देवाः) विद्वानो ! तुम (प्रशस्तये) अपनी उत्तमता के लिये (अप्सु) जलों के (अन्तः) भीतर जो (अमृतम्) मार डालनेवाले रोग का निवारण करनेवाला अमृतरूप रस (उत) तथा (अप्सु) जलों में (भेषजम्) औषध हैं, उनको जानकर (अपाम्) उन जलों की क्रियाकुशलता से (वाजिनः) उत्तम श्रेष्ठ ज्ञानवाले (भवत) हो जाओ॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार:...
Published 07/03/22
अ॒पो दे॒वीरुप॑ ह्वये॒ यत्र॒ गावः॒ पिब॑न्ति नः। सिन्धु॑भ्यः॒ कर्त्वं॑ ह॒विः॥ - ऋग्वेद 1.23.18
पदार्थ -
(यत्र) जिस व्यवहार में (गावः) सूर्य की किरणें (सिन्धुभ्यः) समुद्र और नदियों से (देवीः) दिव्यगुणों को प्राप्त करनेवाले (अपः) जलों को (पिबन्ति) पीती हैं, उन जलों को (नः) हम लोगों के (हविः) हवन करने योग्य पदार्थों के (कर्त्वम्) उत्पन्न करने के लिये मैं (उपह्वये) अच्छे प्रकार स्वीकार करता हूँ॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार:...
Published 07/02/22
अ॒मूर्या उप॒ सूर्ये॒ याभि॑र्वा॒ सूर्यः॑ स॒ह। ता नो॑ हिन्वन्त्वध्व॒रम्॥ - ऋग्वेद 1.23.17
पदार्थ -
(याः) जो (अमूः) जल दृष्टिगोचर नहीं होते (सूर्य्ये) सूर्य वा इसके प्रकाश के मध्य में वर्त्तमान हैं (वा) अथवा (याभिः) जिन जलों के (सह) साथ (सूर्यः) सूर्यलोक वर्त्तमान है (ताः) वे (नः) हमारे (अध्वरम्) हिंसारहित सुखरूप यज्ञ को (उपहिन्वन्तु) प्रत्यक्ष सिद्ध करते हैं॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार: www.vedicscriptures.in)
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Published 07/01/22
अ॒म्बयो॑ य॒न्त्यध्व॑भिर्जा॒मयो॑ अध्वरीय॒ताम्। पृ॒ञ्च॒तीर्मधु॑ना॒ पयः॑॥ - ऋग्वेद 1.23.16
पदार्थ -
जैसे भाइयों को (जामयः) भाई लोग अनुकूल आचरण सुख सम्पादन करते हैं, वैसे ये (अम्बयः) रक्षा करनेवाले जल (अध्वरीयताम्) जो कि हम लोग अपने आप को यज्ञ करने की इच्छा करते हैं, उनको (मधुना) मधुरगुण के साथ (पयः) सुखकारक रस को (अध्वभिः) मार्गों से (पृञ्चतीः) पहुँचानेवाले (यन्ति) प्राप्त होते हैं॥
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(भाष्यकार - स्वामी दयानंद सरस्वती जी)
(सविनय आभार:...
Published 06/30/22
उ॒तो स मह्य॒मिन्दु॑भिः॒ षड्यु॒क्ताँ अ॑नु॒सेषि॑धत्। गोभि॒र्यवं॒ न च॑र्कृषत्॥ - ऋग्वेद 1.23.15
पदार्थ -
जैसे खेती करनेवाला मनुष्य हर एक अन्न की सिद्धि के लिये भूमि को (चर्कृषत्) वारंवार जोतता है (न) वैसे (सः) वह ईश्वर (मह्यम्) जो मैं धर्मात्मा पुरुषार्थी हूँ, उसके लिये (इन्दुभिः) स्निग्ध मनोहर पदार्थों और वसन्त आदि (षट्) छः (ऋतून्) ऋतुओं को (युक्तान्) (गोभिः) गौ, हाथी और घोड़े आदि पशुओं के साथ सुखसंयुक्त और (यवम्) यव आदि अन्न को (अनुसेषिधत्) वारंवार हमारे अनुकूल प्राप्त करे, इससे मैं उसी को...
Published 06/29/22
पू॒षा राजा॑न॒माघृ॑णि॒रप॑गूळ्हं॒ गुहा॑ हि॒तम्। अवि॑न्दच्चि॒त्रब॑र्हिषम्॥ - ऋग्वेद 1.23.14
पदार्थ -
जिससे यह (आघृणिः) पूर्ण प्रकाश वा (पूषा) जो अपनी व्याप्ति से सब पदार्थों को पुष्ट करता है, वह जगदीश्वर (गुहा) (हितम्) आकाश वा बुद्धि में यथायोग्य स्थापन किये हुए वा स्थित (चित्रबर्हिषम्) जो अनेक प्रकार के कार्य्य को करता (अपगूढम्) अत्यन्त गुप्त (राजानम्) प्रकाशमान प्राणवायु और जीव को (अविन्दत्) जानता है, इससे वह सर्वशक्तिमान् है॥
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(भाष्यकार -...
Published 06/28/22
आ पू॑षञ्चि॒त्रब॑र्हिष॒माघृ॑णे ध॒रुणं॑ दि॒वः। आजा॑ न॒ष्टं यथा॑ प॒शुम्॥ - ऋग्वेद 1.23.13
पदार्थ -
जैसे कोई पशुओं का पालनेवाला मनुष्य (नष्टम्) खो गये (पशुम्) गौ आदि पशुओं को प्राप्त होकर प्रकाशित करता है, वैसे यह (आघृणे) परिपूर्ण किरणों (पूषन्) पदार्थों को पुष्ट करनेवाला सूर्यलोक (दिवः) अपने प्रकाश से (चित्रबर्हिषम्) जिससे विचित्र आश्चर्य्यरूप अन्तरिक्ष विदित होता है (धरुणम्) धारण करनेहारे भूगोलों को (आज) अच्छे प्रकार प्रकाश करता है॥
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(भाष्यकार...
Published 06/27/22
ह॒स्का॒राद्वि॒द्युत॒स्पर्यतो॑ जा॒ता अ॑वन्तु नः। म॒रुतो॑ मृळयन्तु नः॥ - ऋग्वेद 1.23.12
पदार्थ -
हम लोग जिस कारण (हस्कारात्) अति प्रकाश से (जाताः) प्रकट हुई (विद्युतः) जो कि चपलता के साथ प्रकाशित होती हैं, वे बिजली (नः) हम लोगों के सुखों को (अवन्तु) प्राप्त करती हैं। जिससे उन को (परि) सब प्रकार से साधते और जिससे (मरुतः) पवन (नः) हम लोगों को (मृळयन्तु) सुखयुक्त करते हैं (अतः) इससे उनको भी शिल्प आदि कार्यों में (परि) अच्छे प्रकार से...
Published 06/26/22
जय॑तामिव तन्य॒तुर्म॒रुता॑मेति धृष्णु॒या। यच्छुभं॑ या॒थना॑ नरः॥ - ऋग्वेद 1.23.11
पदार्थ -
हे (नरः) धर्मयुक्त शिल्पविद्या के व्यवहारों को प्राप्त करनेवाले मनुष्यो ! आप लोग भी (जयतामिव) जैसे विजय करनेवाले योद्धाओं के सहाय से राजा विजय को प्राप्त होता और जैसे (मरुताम्) पवनों के संग से (धृष्णुया) दृढ़ता आदि गुणयुक्त (तन्यतुः) अपने वेग को अति शीघ्र विस्तार करनेवाली बिजुली मेघ को जीतती है, वैसे (यत्) जितना (शुभम्) कल्याणयुक्त सुख है, उस सबको प्राप्त...
Published 06/25/22