" क़समे हम अपनी जान की खाये चले गए...."
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आलेख : सुजॉय चटर्जी वाचन : रचित देशपांडे प्रस्तुति : संज्ञा टंडन नमस्कार दोस्तों, ’एक गीत सौ अफ़साने’ की एक और कड़ी के साथ हम फिर हाज़िर हैं। फ़िल्म और ग़ैर-फ़िल्म-संगीत की रचना प्रक्रिया और उनके विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित रोचक प्रसंगों, दिलचस्प क़िस्सों और यादगार घटनाओं को समेटता है ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ का यह साप्ताहिक स्तम्भ। विश्वसनीय सूत्रों से प्राप्त जानकारियों और हमारे शोधकार्ताओं के निरन्तर खोज-बीन से इकट्ठा किए तथ्यों से परिपूर्ण है ’एक गीत सौ अफ़साने’ की यह श्रॄंखला। आज के अंक के लिए हमने चुना है वर्ष 1973 की फ़िल्म ’मेरे ग़रीब नवाज़’ की ग़ज़ल "क़समे हम अपनी जान की खाये चले गए"। अनवर की आवाज़, महबूब सरवर के बोल और कमल राजस्थानी का संगीत। किस तरह से कमल राजस्थानी और अनवर का साथ बना? इस ग़ज़ल से पहले कमल राजस्थानी अनवर से कौन सा काम लेते थे? इस ग़ज़ल के संदर्भ में अनवर और मोहम्मद रफ़ी के बीच कैसी अदला-बदली हुई? रफ़ी साहब ने अनवर की अपनी जैसी आवाज़ सुन कर अपने सेक्रेटरी से क्या कहा था? इस ग़ज़ल के जारी होने के बाद तमाम लोगों की अनवर के बारे में किस तरह की राय बनी? अनवर एक बार रफ़ी साहब के घर जा कर वार्तालाप के बीच में ही क्यों भाग खड़े हुए? ये सब आज के इस अंक में।
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परिकल्पना : सजीव सारथी आलेख : सुजॉय चटर्जी स्वर : मातृका प्रस्तुति : संज्ञा टंडन नमस्कार दोस्तों, ’एक गीत सौ अफ़साने’ की एक और कड़ी के साथ हम फिर हाज़िर हैं। फ़िल्म और ग़ैर-फ़िल्म-संगीत की रचना प्रक्रिया और उनके विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित रोचक प्रसंगों, दिलचस्प क़िस्सों और यादगार घटनाओं को समेटता...
Published 06/04/24
परिकल्पना : सजीव सारथी आलेख : सुजॉय चटर्जी स्वर : रचिता देशपांडे प्रस्तुति : संज्ञा टंडन नमस्कार दोस्तों, ’एक गीत सौ अफ़साने’ की एक और कड़ी के साथ हम फिर हाज़िर हैं। फ़िल्म और ग़ैर-फ़िल्म-संगीत की रचना प्रक्रिया और उनके विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित रोचक प्रसंगों, दिलचस्प क़िस्सों और यादगार घटनाओं को...
Published 05/29/24
Published 05/29/24