निराकार, निरामय साक्षित्व (अष्‍टावक्र : महागीता - 71)
Listen now
Description
अष्टावक्र उवाच। अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं वात्मनो मन्यते यदा। तदा क्षीणा भवंत्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।। 227।। उच्छृंखलाप्यकृतिका थतिर्धीरस्य राजते। न तु संस्पृहचित्तस्य शांतिर्मूढ़स्य कृत्रिमा।। 228।। विलसन्ति महाभोगेैर्विशन्ति गिरिगह्वरान्‌। निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः।। 229।। श्रोत्रियं देवतां तीर्थमंगनां भूपतिं प्रियम्‌। दृष्ट्‌वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना।। 230।। भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः। विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्‌।। 231।। संतुष्टोऽपि न संतुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते। तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा व जानन्ते।। 232।। कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः। शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः।। 233।।
More Episodes
सद्गुरुओं के अनूठे ढंग (अष्‍टावक्र : महागीता - 72)
Published 03/21/22
दिल का देवालय साफ करो (अष्‍टावक्र : महागीता - 70)
Published 03/19/22