Bahut dinon ke baad | Nagarjun
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बहुत दिनों के बाद | नागार्जुन बहुत दिनों के बाद  अबकी मैंने जी भर देखी  पकी-सुनहली फ़सलों की मुस्कान  - बहुत दिनों के बाद  बहुत दिनों के बाद  अबकी मैं जी भर सुन पाया  धान कूटती किशोरियों की कोकिलकंठी तान  - बहुत दिनों के बाद  बहुत दिनों के बाद  अबकी मैंने जी भर सूँघे  मौलसिरी के ढेर-ढेर-से ताज़े-टटके फूल  - बहुत दिनों के बाद  बहुत दिनों के बाद  अबकी मैं जी भर छू पाया  अपनी गँवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल  - बहुत दिनों के बाद  बहुत दिनों के बाद  अबकी मैंने जी भर तालमखाना खाया  गन्ने चूसे जी भर  -बहुत दिनों के बाद  बहुत दिनों के बाद  अबकी मैंने जी भर भोगे  गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर  - बहुत दिनों के बाद 
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परिन्दे पर कवि को पहचानते हैं - राजेश जोशी  सालिम अली की क़िताबें पढ़ते हुए मैंने परिन्दों को पहचानना सीखा। और उनका पीछा करने लगा पाँव में जंज़ीर न होती तो अब तक तो . न जाने कहाँ का कहाँ निकल गया होता हो सकता था पीछा करते-करते मेरे पंख उग आते और मैं उड़ना भी सीख जाता जब परिन्दे गाना शुरू...
Published 07/02/24
एक तिनका | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’  मैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ। एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा। आ अचानक दूर से उड़ता हुआ। एक तिनका आँख में मेरी पड़ा। मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा। लाल होकर आँख भी दुखने लगी। मूँठ देने लोग कपड़े की लगे। ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी। जब किसी ढब से निकल तिनका...
Published 07/01/24
Published 07/01/24