Episodes
औरत की गुलामी | डॉ श्योराज सिंह ‘बेचैन’  किसी आँख में लहू है- किसी आँख में पानी है। औरत की गुलामी भी- एक लम्बी कहानी है। पैदा हुई थी जिस दिन- घर शोक में डूबा था। बेटे की तरह उसका- उत्सव नहीं मना था। बंदिश भरा है बचपन- बोझिल-सी जवानी है। औरत की गुलामी भी- एक लम्बी कहानी है। तालीम में कमतर है-- बाहरी हवा ज़हर है। लड़का कहीं भी जाए- उस पर कड़ी नज़र है। उसे जान गँवा कर भी- हर रस्म निभानी है। औरत की गुलामी भी- एक लम्बी कहानी है। कभी अग्नि परीक्षा में- औरत ही तो बैठी थी। होती थी जब सती तो- औरत ही...
Published 06/16/24
Published 06/16/24
चल इंशा अपने गाँव में | इब्ने इंशा यहाँ उजले उजले रूप बहुत पर असली कम, बहरूप बहुत इस पेड़ के नीचे क्या रुकना जहाँ साये कम,धूप बहुत चल इंशा अपने गाँव में बेठेंगे सुख की छाओं में क्यूँ तेरी आँख सवाली है ? यहाँ हर एक बात निराली है इस देस बसेरा मत करना यहाँ मुफलिस होना गाली है जहाँ सच्चे रिश्ते यारों के जहाँ वादे पक्के प्यारों के जहाँ सजदा करे वफ़ा पांव में चल इंशा अपने गाँव में
Published 06/15/24
सात पंक्तियाँ - मंगलेश डबराल  मुश्किल से हाथ लगी एक सरल पंक्ति एक दूसरी बेडौल-सी पंक्ति में समा गई उसने तीसरी जर्जर क़िस्म की पंक्ति को धक्का दिया इस तरह जटिल-सी लड़खड़ाती चौथी पंक्ति बनी जो ख़ाली झूलती हुई पाँचवीं पंक्ति से उलझी जिसने छटपटाकर छठी पंक्ति को खोजा जो आधा ही लिखी गई थी अन्ततः सातवीं पंक्ति में गिर पड़ा यह सारा मलबा।
Published 06/14/24
बहुरूपिया | मदन कश्यप  जब वह पास आया तो पाँव में प्लास्टिक की चप्पल देखकर  एकदम से हँसी फूट पड़ी फिर लगा भला कैसे संभव है महानगर की क्रूर सड़कों पर नंगे पाँव चलना  चाहे वह बहुरूपिया ही क्यों न हो वैसे उसने अपनी तरफ़ से कोशिश की थी दुम इतनी ऊँची लगायी थी कि वह सिर से काफ़ी ऊपर उठी दिख रही थी बाँस की खपच्चियों पर पीले काग़ज़ साटकर बनी गदा कमज़ोर भले हो  चमकदार ख़ूब थी सिर पर गत्ते की चमकती टोपी थी चेहरे और हाथ-पाँव पर ख़ूब लाल रंग पोत रखा था  लेकिन लाल लँगोटे की जगह धारीदार अंडरवियर  और बदन में...
Published 06/13/24
इक रोज़ दूध ने की पानी से पाक उल्फ़त | अज्ञात  इक रोज़ दूध ने की, पानी से पाक उल्फ़त इक ज़ात हो गए वो, मिल-जुल के भाई भाई इनमें बढ़ी वो उल्फ़त, एक रंग हो गए वो एक दूसरे ने पाया, सौ जान से फ़िदाई  हलवाई ने उनकी, उल्फ़त का राज़ समझा  दोनों से भर के रक्खी, भट्टी पे जब कढ़ाई  बरछी की तरह उट्ठे, शोले डराने वाले  भाई रहे सलामत, पानी के दिल में आई  ख़ामोश भाप बनकर, भाई से ली विदाई  क्या पाक-दामनी थी, के जान भी गँवाई  जब दूध ने ये देखा, उल्फ़त का जोश आया  जब दूध ने ये देखा, उल्फ़त का जोश आया  कहने लगा...
Published 06/12/24
अरे अब ऐसी कविता लिखो | रघुवीर सहाय अरे अब ऐसी कविता लिखो कि जिसमें छंद घूमकर आय घुमड़ता जाय देह में दर्द कहीं पर एक बार ठहराय कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूं वही दो बार शब्द बन जाय बताऊँ बार-बार वह अर्थ न भाषा अपने को दोहराय अरे अब ऐसी कविता लिखो कि कोई मूड़ नहीं मटकाय न कोई पुलक-पुलक रह जाय न कोई बेमतलब अकुलाय छंद से जोड़ो अपना आप कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय थामकर हँसना-रोना आज उदासी होनी की कह जाय।
Published 06/11/24
प्रेम करना या फंसना - रूपम मिश्रा  हम दोनों नए-नए प्रेम में थे उसके हाथ में महँगा-सा फोन था और बाँह में औसत-सी मैं फोन में कई खूबसूरत लड़कियों की तसवीरें दिखाते हुए उसने मुस्कुराते हुए गर्व से कहा, देख रही हो ये सब मुझपे मरती थीं मैंने कहा और तुम! उसने कहा, ज़ाहिर है मैं भी प्रेम करता था मुझे भी थोड़ा रोमांच हुआ मैंने हसरत और थोड़ी रूमानियत से लजाते हुए कहा मेरे भी स्कूल में एक पगलेट-सा लड़का था मुझे बहुत अच्छा लगता था, हम खूब बातें करते थे तब उसने मेरी ओर हिकारत से देखकर कहां अच्छा तो तुम...
Published 06/10/24
ऋण फूलों-सा | सुनीता जैन इस काया को जिस माया ने जन्म दिया, वह माँग रही-कि जैसे उत्सव के बाद दीवारों पर हाथों के थापे रह जाते जैसे पूजा के बाद चौरे के आसपास पैरों के छापे रह जाते जैसे वृक्षों पर प्रेम संदेशों के बँधे, बँधे धागे रह जाते, वैसा ही कुछ कर जाऊँ सोच रही, माया के धीरज का काया की कथरी का यह ऋण फूलों-सा हल्का- किन शब्दों में तोल, चुकाऊँ
Published 06/09/24
साथ चलते चलते तुम | रश्मि  पाठक   तुम बहुत आगे   निकल गए   जाने कितना समय   लगेगा तुम तक   पहुँचने में   सोचती थी कैसे कटेंगे    ये पल छिन    बीत गया एक    बरस तुम्हारे बिन    बंद हुए अब मन के    सारे द्वार    रुक गया है मेरा    प्रति स्पंदन    रह रह कर टीसती   है वेदना   और बूँद बूँद आँखों के   कोनों से झड़ती   है  चुपचाप   तुम नहीं हो मेरे पास
Published 06/08/24
फ़िलहाल | उदय प्रकाश  एक गत्ते का आदमी बन गया था लौहपुरुष बलात्कारी हो चुका था सन्त व्यभिचारी विद्वान चापलूस क्रान्तिकारी मदारी को घोषित कर दिया गया था युग-प्रवर्तक अख़बार और चैनल चीख़-चीख़ कर कह रहे थे आ गयी है सच्ची जम्हूरियत जहाँ सबसे ज्यादा लाशें बिछी थीं वहीं हो रहा था विकास जो बैठा था किसी उजड़े पेड़ के नीचे पढ़ते हुए अकेले में कोई बहुत पुरानी किताब वही था सन्दिग्ध उसकी हो रही थी लगातार निगरानी
Published 06/07/24
कविता के लिए | स्नेहमयी चौधरी कविता लिखने के लिए जो परेशान करते थे  उन सबको मैंने धीरे-धीरे अपने से काट दिया।  जैसे : ज़रा सी बात पर  बड़ी देर तक घुमड़ते रहना,  अपने किए को हर बार ग़लत समझना,  निरंतर अविश्वास की झिझक ओढ़े घूमना।  अब सिर ऊँचा कर स्वस्थ हो रही हूँ,  मकान बनाने में जुटे मज़दूरों को देख रही हूँ। 
Published 06/06/24
जो मार खा रोईं नहीं | विष्णु खरे तिलक मार्ग थाने के सामने जो बिजली का एक बड़ा बक्स है उसके पीछे नाली पर बनी झु्ग्गी का वाक़या है यह चालीस के क़रीब उम्र का बाप सूखी सांवली लंबी-सी काया परेशान बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी अपने हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ नाराज़ हो रहा था अपनी पांच साल और सवा साल की बेटियों पर जो चुपचाप उसकी तरफ़ ऊपर देख रही थीं ग़ु्स्सा बढ़ता गया बाप का पता नहीं क्या हो गया था बच्चियों से कु्त्ता खाना ले गया था दूध, दाल, आटा, चीनी, तेल, केरोसीन में से क्या घर में था जो बगर...
Published 06/05/24
कल्पवृक्ष | दामोदर खड़से  कविता भीतर से होते हुए  जब शब्दों में ढलती है भीतरी ठिठुरन ऊष्मा के स्पर्श से प्राणवान हो उठती है  ज्यों थकी हुई प्रतीक्षा बेबस प्यास दुत्कारी आशा अनायास ही किसी पुकार को थाम लेती है शब्द सार्थक हो उठते हैं और एकांत भी  सान्निध्य से भर जाते हैं कविता कल्पवृक्ष है।
Published 06/04/24
भाषा | स्नेहमयी चौधरी यह नहीं कि  उसे कोई शिकायत नहीं,  लेकिन अब वह अपने पक्ष में  कोई तर्क न देगी,  न चाहेगी—  लगाए गए आरोपों का  कोई निराकरण।  यह नहीं कि  उसके पास कहने को  कुछ नहीं,  शायद यह कि  बहुत कुछ है।  अब कोई न पूछे  उसके निजी दस्तावेज़,  यही तो उसकी संपत्ति है।  यद्यपि निष्क्रिय विद्रोह  आज की भाषा नहीं :  यह नहीं कि वह जानती नहीं।  शायद यही उसके लिए  सही भाषा की तलाश का  एक तरीक़ा है। 
Published 06/03/24
पूरा परिवार एक कमरे में | लक्ष्मीशंकर वाजपेयी पूरा परिवार, एक कमरे में कितने संसार, एक कमरे में। हो नहीं पाया बड़े सपनों का छोटा आकार, एक कमरे में। ज़िक्र दादा की उस हवेली का सैंकड़ों बार, एक कमरे में। शोरगुल, नींद, पढ़ाई, टी.वी. रोज़ तकरार, एक कमरे में। एक घर, हर किसी की आँखों में सबका विस्तार, एक कमरे में।
Published 06/02/24
मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता | शहंशा आलम  मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता तुम्हारे लिए बुद्ध की मुस्कराहट ज़रूर बनना चाहता हूँ बुद्ध मर जाते हैं जिस तरह पिता मर जाते हैं किसी जुमेरात की रात को बुद्ध की मुस्कान लेकिन जीवित रहती है हमेशा मेरे होंठों पर ठहरकर जिस मुस्कान पर तुम मर मिटती हो तेज़ बारिश के दिनों में।
Published 06/01/24
गीत | डॉ श्योराज सिंह 'बेचैन'  मज़दूर-किसानों के अधर यूँ ही कहेंगे। हम एक थे, हम एक हैं, हम एक रहेंगे।। मज़हब, धर्म  के नाम पर लड़ना नहीं हमें। फिर्को में जातियों में बिखरना नहीं हमें |। हम नेक थे, हम नेक हैं, हम नेक रहेंगे । समता की भूख हमसे कह रही है अब उठो। सामन्तों, दरिन्दों की बढ़ो, रीढ़ तोड़ दो ।। अपने हकूक दुश्मनों से लेके रहेंगे | कैसा अछूत-छूत क्या, हैं हिन्दू क्या मुसलमान । यकरसाँ हैं ज़माने के रफीको! सभी इन्सान |। जो फर्क करेगा उसे जाहिल कहेंगे | फिकों से, जुबानों से तो ऊपर उठे हैं...
Published 05/31/24
सूरज |  आकांक्षा पांडे तुम,  हां तुम्हीं तुमसे कुछ बताना  चाहती हूँ। माना अनजान हूं दिखती नादान हूं  कुछ ज्यादा कहने को नहीं है कोई बड़ा फरमान नही है बस इतना दोहराना है जग में सबने जाना है पीड़ा घटे बताने से रात कटे बहाने से लेकिन की थोड़ी कंजूसी करके इतनी कानाफूसी बात का बतंगड़ बनाया ऐसा मायाजाल पिरोया कि अब डरते हो तुम  कहने से अपने मन की  देने दुहाई तन्हा दिल की करना साझा अपना  बिसरा कोई दुख पुराना  किसी अपने का दूर जाना  सब रखते हो तकिए के नीचे  गठरी बांध कही कोने में  चूक से भी खोल न...
Published 05/30/24
अँधेरा भी एक दर्पण है | अनुपम सिंह  अँधेरा भी एक दर्पण है  साफ़ दिखाई देती हैं सब छवियाँ यहाँ काँटा तो गड़ता ही है फूल भी भय देता है कभी नहीं भूली अँधेरे में गही बाँह पृथ्वी सबसे उच्चतम बिन्दु पर काँपी थी जल काँपा था काँपे थे सभी तत्त्व वह भी एक महाप्रलय था आँधेरे से सन्धि चाहते दिशागामी पाँव टकराते हैं आकाश तक खिंचे तम के पर्दे से जीवन-मृत्यु और भय का इतना रोमांच! भावों की पराकाष्ठा है यह अँधेरा अँधेरे की घाटी में सीढ़ीदार उतरन नहीं होती सीधे ही उतरना पड़ता है मुँह के बल अँधेरे के आँसू वही...
Published 05/29/24
टहनियाँ | जयप्रकाश कर्दम काटा जाता है जब भी कोई पेड़ बेजान हो जाती हैं टहनियां बिना कटे ही पेड़ है क्योंकि टहनियां हैं टहनियां हैं क्योंकि पेड़ है अर्थहीन हैं एक दूसरे के बिना पेड़ और टहनियां ठूंठ हो जाता है पेड़ टहनियों के अभाव में टहनियां हैं पेड़ का कुनबा पेड़ ने देखा है अपने कुनबे को बढते हुए टहनियों ने देखा है पेड़ को कटते हुए कटकर गिरने से पहले अंतिम शंवास तक संघर्ष करते हुए टहनियां उदास हैं कि पेड़ कट गया पेड़ उदास है कि टहनियां कटेंगी उन पर भी चलेगी कुल्हाड़ी कटते रहेंगे कब तक...
Published 05/28/24
एक अविश्वसनीय सपना - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एक दिन उसने सपना देखा बिना वीसा बिना पासपोर्ट सारी दुनिया में घूम रहा है वह न कोई सरहद, न कोई चेकपोस्ट समुद्रों और पहाड़ों और नदियों और जंगलों से गुज़रते हुए उसने अद्भुत दृश्य देखे... आकाश के, बादलों और रंगों के... अक्षत यौवना प्रकृति उसके सामने थी... निर्भय घूम रहे थे पशु पक्षी। पुरुष स्त्री बच्चे  क्या शहर थे वे और कैसे गाँव कोई राजा कोई सिपाही कोई जेल कोई बन्दूक नहीं चारों ओर खिले हुए चेहरे और उगते हुए अँखुए और उड़ती हुई तितलियाँ  उसे अचरज हुआ उसे...
Published 05/27/24
रोक सको तो रोको | पूनम शुक्ला  उछलेंगी ये लहरें अपनी राह बना लेंगी ये बल खाती सरिताएँ अपनी इच्छाएँ पा लेंगी रोको चाहे जितना भी ये झरने शोर मचाएँगे रोड़े कितने भी डालो कूद के ये आ जाएँगे चाहे ऊँची चट्टानें हों विहंगों का वृंद बसेगा सूखती धरा भले हो पुष्पों का झुंड हँसेगा हो रात घनेरी जितनी रोशनी का पुंज उगेगा रोक सको तो रोको यम भी विस्मित चल देगा डालो चाहे जितने विघ्न चाहे जितने करो प्रयत्न रोक नहीं सकते तुम हमको पाने से जीवन के कुछ रत्न ।
Published 05/26/24
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा |  विनोद कुमार शुक्ल घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा अपने संन्यास में मैं और भी घरेलू रहूंगा घर में घरेलू और पड़ोस में भी। एक अनजान बस्ती में एक बच्चे ने मुझे देखकर बाबा कहा वह अपनी माँ की गोद में था उसकी माँ की आँखों में ख़ुशी की चमक थी कि उसने मुझे बाबा कहा एक नामालूम सगा।
Published 05/25/24
अग्निपथ | हरिवंश राय बच्चन वृक्ष हों भले खड़े, हों घने हों बड़े, एक पत्र छाँह भी, माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु स्वेद रक्त से, लथपथ लथपथ लथपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
Published 05/24/24