Episodes
पूरा परिवार एक कमरे में | लक्ष्मीशंकर वाजपेयी पूरा परिवार, एक कमरे में कितने संसार, एक कमरे में। हो नहीं पाया बड़े सपनों का छोटा आकार, एक कमरे में। ज़िक्र दादा की उस हवेली का सैंकड़ों बार, एक कमरे में। शोरगुल, नींद, पढ़ाई, टी.वी. रोज़ तकरार, एक कमरे में। एक घर, हर किसी की आँखों में सबका विस्तार, एक कमरे में।
Published 06/02/24
मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता | शहंशा आलम  मैं बुद्ध नहीं बनना चाहता तुम्हारे लिए बुद्ध की मुस्कराहट ज़रूर बनना चाहता हूँ बुद्ध मर जाते हैं जिस तरह पिता मर जाते हैं किसी जुमेरात की रात को बुद्ध की मुस्कान लेकिन जीवित रहती है हमेशा मेरे होंठों पर ठहरकर जिस मुस्कान पर तुम मर मिटती हो तेज़ बारिश के दिनों में।
Published 06/01/24
गीत | डॉ श्योराज सिंह 'बेचैन'  मज़दूर-किसानों के अधर यूँ ही कहेंगे। हम एक थे, हम एक हैं, हम एक रहेंगे।। मज़हब, धर्म  के नाम पर लड़ना नहीं हमें। फिर्को में जातियों में बिखरना नहीं हमें |। हम नेक थे, हम नेक हैं, हम नेक रहेंगे । समता की भूख हमसे कह रही है अब उठो। सामन्तों, दरिन्दों की बढ़ो, रीढ़ तोड़ दो ।। अपने हकूक दुश्मनों से लेके रहेंगे | कैसा अछूत-छूत क्या, हैं हिन्दू क्या मुसलमान । यकरसाँ हैं ज़माने के रफीको! सभी इन्सान |। जो फर्क करेगा उसे जाहिल कहेंगे | फिकों से, जुबानों से तो ऊपर उठे हैं...
Published 05/31/24
सूरज |  आकांक्षा पांडे तुम,  हां तुम्हीं तुमसे कुछ बताना  चाहती हूँ। माना अनजान हूं दिखती नादान हूं  कुछ ज्यादा कहने को नहीं है कोई बड़ा फरमान नही है बस इतना दोहराना है जग में सबने जाना है पीड़ा घटे बताने से रात कटे बहाने से लेकिन की थोड़ी कंजूसी करके इतनी कानाफूसी बात का बतंगड़ बनाया ऐसा मायाजाल पिरोया कि अब डरते हो तुम  कहने से अपने मन की  देने दुहाई तन्हा दिल की करना साझा अपना  बिसरा कोई दुख पुराना  किसी अपने का दूर जाना  सब रखते हो तकिए के नीचे  गठरी बांध कही कोने में  चूक से भी खोल न...
Published 05/30/24
अँधेरा भी एक दर्पण है | अनुपम सिंह  अँधेरा भी एक दर्पण है  साफ़ दिखाई देती हैं सब छवियाँ यहाँ काँटा तो गड़ता ही है फूल भी भय देता है कभी नहीं भूली अँधेरे में गही बाँह पृथ्वी सबसे उच्चतम बिन्दु पर काँपी थी जल काँपा था काँपे थे सभी तत्त्व वह भी एक महाप्रलय था आँधेरे से सन्धि चाहते दिशागामी पाँव टकराते हैं आकाश तक खिंचे तम के पर्दे से जीवन-मृत्यु और भय का इतना रोमांच! भावों की पराकाष्ठा है यह अँधेरा अँधेरे की घाटी में सीढ़ीदार उतरन नहीं होती सीधे ही उतरना पड़ता है मुँह के बल अँधेरे के आँसू वही...
Published 05/29/24
टहनियाँ | जयप्रकाश कर्दम काटा जाता है जब भी कोई पेड़ बेजान हो जाती हैं टहनियां बिना कटे ही पेड़ है क्योंकि टहनियां हैं टहनियां हैं क्योंकि पेड़ है अर्थहीन हैं एक दूसरे के बिना पेड़ और टहनियां ठूंठ हो जाता है पेड़ टहनियों के अभाव में टहनियां हैं पेड़ का कुनबा पेड़ ने देखा है अपने कुनबे को बढते हुए टहनियों ने देखा है पेड़ को कटते हुए कटकर गिरने से पहले अंतिम शंवास तक संघर्ष करते हुए टहनियां उदास हैं कि पेड़ कट गया पेड़ उदास है कि टहनियां कटेंगी उन पर भी चलेगी कुल्हाड़ी कटते रहेंगे कब तक...
Published 05/28/24
एक अविश्वसनीय सपना - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी एक दिन उसने सपना देखा बिना वीसा बिना पासपोर्ट सारी दुनिया में घूम रहा है वह न कोई सरहद, न कोई चेकपोस्ट समुद्रों और पहाड़ों और नदियों और जंगलों से गुज़रते हुए उसने अद्भुत दृश्य देखे... आकाश के, बादलों और रंगों के... अक्षत यौवना प्रकृति उसके सामने थी... निर्भय घूम रहे थे पशु पक्षी। पुरुष स्त्री बच्चे  क्या शहर थे वे और कैसे गाँव कोई राजा कोई सिपाही कोई जेल कोई बन्दूक नहीं चारों ओर खिले हुए चेहरे और उगते हुए अँखुए और उड़ती हुई तितलियाँ  उसे अचरज हुआ उसे...
Published 05/27/24
रोक सको तो रोको | पूनम शुक्ला  उछलेंगी ये लहरें अपनी राह बना लेंगी ये बल खाती सरिताएँ अपनी इच्छाएँ पा लेंगी रोको चाहे जितना भी ये झरने शोर मचाएँगे रोड़े कितने भी डालो कूद के ये आ जाएँगे चाहे ऊँची चट्टानें हों विहंगों का वृंद बसेगा सूखती धरा भले हो पुष्पों का झुंड हँसेगा हो रात घनेरी जितनी रोशनी का पुंज उगेगा रोक सको तो रोको यम भी विस्मित चल देगा डालो चाहे जितने विघ्न चाहे जितने करो प्रयत्न रोक नहीं सकते तुम हमको पाने से जीवन के कुछ रत्न ।
Published 05/26/24
घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा |  विनोद कुमार शुक्ल घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा अपने संन्यास में मैं और भी घरेलू रहूंगा घर में घरेलू और पड़ोस में भी। एक अनजान बस्ती में एक बच्चे ने मुझे देखकर बाबा कहा वह अपनी माँ की गोद में था उसकी माँ की आँखों में ख़ुशी की चमक थी कि उसने मुझे बाबा कहा एक नामालूम सगा।
Published 05/25/24
अग्निपथ | हरिवंश राय बच्चन वृक्ष हों भले खड़े, हों घने हों बड़े, एक पत्र छाँह भी, माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु स्वेद रक्त से, लथपथ लथपथ लथपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
Published 05/24/24
फ़ागुन का गीत |  केदारनाथ सिंह गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता! ये बाँधे नहीं बँधते,  बाँहें रह जातीं खुली की खुली, ये तोले नहीं तुलते, इस पर ये आँखें तुली की तुली, ये कोयल के बोल उड़ा करते, इन्हें थामे हिया रहता! अनगाए भी ये इतने मीठे इन्हें गाएँ तो क्या गाएँ, ये आते, ठहरते, चले जाते इन्हें पाएँ तो क्या पाएँ ये टेसू में आग लगा जाते, इन्हें छूने में डर लगता! ये तन से परे ही परे रहते, ये मन में नहीं अँटते, मन इनसे अलग जब हो जाता, ये काटे नहीं कटते, ये आँखों के पाहुन बड़े...
Published 05/23/24
सच है, विपत्ति जब आती है | रामधारी सिंह दिनकर  सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, सूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं। मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं, शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़। मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है। गुण...
Published 05/22/24
 चिट्ठी है किसी दुखी मन की |  कुँवर बेचैन  बर्तन की यह उठका-पटकी यह बात-बात पर झल्लाना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। यह थकी देह पर कर्मभार इसको खाँसी, उसको बुखार जितना वेतन, उतना उधार नन्हें-मुन्नों को गुस्से में हर बार, मारकर पछताना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। इतने धंधे! यह क्षीणकाय- ढोती ही रहती विवश हाय खुद ही उलझन, खुद ही उपाय आने पर किसी अतिथि जन के दुख में भी सहसा हँस जाना चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
Published 05/21/24
नीड़ का निर्माण | हरिवंश राइ बच्चन नीड़ का निर्माण फिर-फिर,नेह का आह्वान फिर-फिर!वह उठी आँधी कि नभ मेंछा गया सहसा अँधेरा,धूलि धूसर बादलों नेभूमि को इस भाँति घेरा,रात-सा दिन हो गया, फिररात आ‌ई और काली,लग रहा था अब न होगाइस निशा का फिर सवेरा,रात के उत्पात-भय सेभीत जन-जन, भीत कण-कणकिंतु प्राची से उषा कीमोहिनी मुस्कान फिर-फिर!नीड़ का निर्माण फिर-फिर,नेह का आह्वान फिर-फिर!वह चले झोंके कि काँपेभीम कायावान भूधर,जड़ समेत उखड़-पुखड़करगिर पड़े, टूटे विटप वर,हाय, तिनकों से विनिर्मितघोंसलो पर क्या न...
Published 05/20/24
 गुन गाऊँगा | अरुण कमल गुन गाऊँगा फाग के फगुआ के चैत के पहले दिन के गुन गाऊँगा गुड़ के लाल पुओं और चाशनी में इतराते मालपुओं के गुन गाऊँगा दही में तृप्त उड़द बड़ों और भुने जीरों रोमहास से पुलकित कटहल और गुदाज़ बैंगन के गुन गाऊँगा होली में घर लौटते जन मजूर परिवारों के गुन भाँग की सांद्र पत्तियों और मगही पान के नर्म पत्तों सरौतों सुपारियों के गुन गाऊँगा जन्मजन्मांतर मैं वसंत के धरती के गुन गाऊँगा— आओ वसंतसेना आओ मेरे वक्ष को बेधो आज रात सारे शास्त्र समर्पित करता मैं महुए की सुनसान टाप के गुन...
Published 05/19/24
साहिल और समंदर | सरवर  ऐ समंदर क्यों इतना शोर करते हो  क्या कोई दर्द अंदर रखते हो  यूं हर बार साहिल से तुम्हारा टकराना  किसी के रोके जाने के खिलाफ तो नहीं  पर मुझको तुम्हारी लहरें याद दिलाती हैं  कोशिश से बदल जाते हैं हालात  तुमने ढाला है साहिलों को  बदला है उनके जबीनों को  मुझको ऐसा मालूम पड़ता है  कि तुम आकर लेते हो  बौसा साहिलों के हज़ार  ये मोहब्बत है तुम्हारी उस साहिल के लिए  जो छोड़ता नहीं है तुम्हारा साथ  काश इंसान भी साहिल और समंदर होता  कितने भी बिगड़ते हालात  फिर भी होते साथ  साहिल और...
Published 05/18/24
फ़र्नीचर | अनामिका मैं उनको रोज़ झाड़ती हूँ पर वे ही हैं इस पूरे घर में जो मुझको कभी नहीं झाड़ते! रात को जब सब सो जाते हैं— अपने इन बरफाते पाँवों पर आयोडिन मलती हुई सोचती हूँ मैं— किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फ़र्नीचर, कठुआ गए होंगे किसी शाप से ये! मैं झाड़ने के बहाने जो छूती हूँ इनको, आँसुओं से या पसीने से लथपथ- इनकी गोदी में छुपाती हूँ सर- एक दिन फिर से जी उठेंगे ये! थोड़े-थोड़े-से तो जी भी उठे हैं। गई रात चूँ-चूँ-चू करते हैं : ये शायद इनका चिड़िया का जनम है, कभी आदमी भी हो जाएँगे! जब आदमी...
Published 05/17/24
दुआ | मनमीत नारंग कतरनें प्यार की जो फेंक दीं थी बेकार समझकर चल चुनें तुम और मैंहर टुकड़ा उस नेमत का और बुनें एक रज़ाई छुप जाएं सभी उसमें आज तुम मेरे सीने पे मैं उसके कंधे पर सिर रखकर रो लें ज़रा कुछ हँस दें ज़रा यूँ ही ज़िंदगी  गुज़र बसर हो जाएगी शायद यह दुनिया बच जाएगी 
Published 05/16/24
दही जमाने को, थोड़ा-सा जामन देना | यश मालवीय मन अनमन है, पल भर को  अपना मन देना  दही जमाने को, थोड़ा-सा  जामन देना  सिर्फ़ तुम्हारे छू लेने से  चाय, चाय हो जाती  धूप छलकती दूध सरीखी  सुबह गाय हो जाती  उमस बढ़ी है, अगर हो सके  सावन देना  दही जमाने को, थोड़ा-सा  जामन देना  नहीं बाँटते इस देहरी  उस देहरी बैना  तोता भी उदास, मन मारे  बैठी मैना  घर से ग़ायब होता जाता,  आँगन देना  दही जमाने को, थोड़ा-सा  जामन देना अलग-अलग रहने की  ये कैसी मजबूरी  बहुत दिन हुए, आओ चलो  कुतर लें दूरी  आ जाना कुछ...
Published 05/15/24
तमाशा | मदन कश्यप  सर्कस में शेर से लड़ने की तुलना में बहुत अधिक ताकत और हिम्मत की ज़रूरत होती है जंगल में शेर से लड़ने के लिए जो जिंदगी की पगडंडियों पर इतना भी नहीं चल सका कि सुकून से चार रोटियाँ खा सके वह बड़ी आसानी से आधी रोटी के लिए रस्सी पर चल लेता है। तमाशा हमेशा ही सहज होता है क्योंकि इसमें बनी-बनायी सरल प्रक्रिया में चीजें लगभग पूर्व निर्धारित गति से चल कर पहले से सोचे-समझे अंत तक पहुँचती हैं कैसा होता है वह देश जिसका शासक बड़े से बड़े मसले को तमाशे में बदल देता है। और जनता को...
Published 05/14/24
जड़ें | राजेंद्र धोड़पकर हवा में बिल्कुल हवा में उगा पेड़  बिल्कुल हवा में, ज़मीन में नहीं  बादलों पर झरते हैं उसके पत्ते  लेकिन जड़ों को चाहिए एक आधार और वे  किसी दोपहर सड़क पर चलते एक आदमी के  शरीर में उतर जाती हैं  उसके साथ उसके घर जाती हैं जड़ें  और फैलती हैं दीवारों में भी  आदमी झरता जाता है दीवारों के पलस्तर-सा  जब भी बारिश होती है  उसके स्वप्नों में पत्ते झरते हैं बादलों से  जब दोपहर में आदमी चला जाता है शहर में खपने  तब एक फल गिरता है आँगन में  सुनसान धूप में  और उसके सोते हुए बच्चे...
Published 05/13/24
संयोग | शहंशाह आलम यह संयोगवश नहीं हुआ कि मैंने पुरानी साइकिल से पुराने शहरों की यात्राएं कीं ख़ानाबदोश उम्मीदों से भरी इस यात्रा में संयोग यह था कि तुम्हारा प्रेम साथ था मेरे तुम्हारे प्रेम ने मुझे अकेलेपन से मुठभेड़ नहीं होने दिया एक संयोग यह भी था कि मेरा शहर जूझ रहा था अकेलेपन की उदासी से तुम्हारे ही इंतज़ार में और मेरे शहर का नाम तुमने खजुराहो रखा था प्रेम की पवित्रता में बहकर।
Published 05/12/24
वहाँ नहीं मिलूँगी मैं | रेणु कश्यप मैंने लिखा एक-एक करके  हर अहसास को काग़ज़ पर  और सँभालकर रखा उसे फिर  दरअस्ल, छुपाकर  मैंने खटखटाया एक दरवाज़ा  और भाग गई फिर  डर जितने डर  उतने निडर नहीं हम  छुपते-छुपाते जब आख़िर निकलो जंगल से बाहर  जंगल रह जाता है साथ ही  आसमान से झूठ बोलो या सच  समझ जाना ही है उसे  कि दोस्त होते ही हैं ऐसे।  मेरे डरों से पार  एक दुनिया है  तुम वहीं ढूँढ़ रहे हो मुझे  वहाँ नहीं मिलूँगी मैं। 
Published 05/11/24
यदि चुने हों शब्द | नंदकिशोर आचार्य  जोड़-जोड़ कर एक-एक ईंट ज़रूरत के मुताबिक लोहा, पत्थर, लकड़ी भी रच-पच कर बनाया है इसे। गोखे-झरोखे सब हैं दरवाज़े भी कि आ-जा सकें वे जिन्हें यहाँ रहना था यानी तुम। आते भी हो पर देख-छू कर चले जाते हो और यह तुम्हारी खिलखिलाहट से जिसे गुँजार होना था मक़्बरे-सा चुप है। सोचो, यदि यह मक़्बरा हो भी तो किस का? और ईंटों की जगह चुने हों यदि शब्द!
Published 05/10/24
धूप | रूपा सिंह धूप!! धधकती, कौंधती, खिलखिलाती अंधेरों को चीरती, रौशन करती। मेरी उम्र भी एक धूप थी अपनी ठण्डी हड्डियों को सेंका करते थे जिसमें तुम! मेरी आत्मा अब भी एक धूप अपनी बूढ़ी हड्डियों को गरमाती हूँ जिसमें। यह धूप उतार दूँगी, अपने बच्चों के सीने में ताकि ठण्डी हड्डियों वाली नस्लें इस जहाँ से ही ख़त्म हो जाएँ।
Published 05/09/24