Description
यदि चुने हों शब्द | नंदकिशोर आचार्य
जोड़-जोड़ कर
एक-एक ईंट
ज़रूरत के मुताबिक
लोहा, पत्थर, लकड़ी भी
रच-पच कर बनाया है इसे।
गोखे-झरोखे सब हैं
दरवाज़े भी
कि आ-जा सकें वे
जिन्हें यहाँ रहना था
यानी तुम।
आते भी हो
पर देख-छू कर चले जाते हो
और यह
तुम्हारी खिलखिलाहट से जिसे गुँजार
होना था
मक़्बरे-सा चुप है।
सोचो,
यदि यह मक़्बरा हो भी तो
किस का?
और ईंटों की जगह
चुने हों यदि शब्द!
मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी
ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी
वो तिरा ग़म हो या ग़म-ए-आफ़ाक़
शम्मअ सी दिल में झिलमिलाती थी
ज़िन्दगी को रह-ए-मोहब्बत में
मौत ख़ुद रौशनी दिखाती थी
जल्वा-गर हो रहा था कोई उधर
धूप इधर फीकी पड़ती जाती थी
ज़िन्दगी ख़ुद को...
Published 06/28/24
सिर छिपाने की जगह | राजेश जोशी
न उन्होंने कुंडी खड़खड़ाई न दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई
अचानक घर के अन्दर तक चले आए वे लोग
उनके सिर और कपड़े कुछ भीगे हुए थे
मैं उनसे कुछ पूछ पाता, इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया
कि शायद तुमने हमें पहचाना नहीं ।
हाँ...पहचानोगे भी कैसे
बहुत बरस हो गए मिले...
Published 06/27/24