Description
जड़ें | राजेंद्र धोड़पकर
हवा में बिल्कुल हवा में उगा पेड़
बिल्कुल हवा में, ज़मीन में नहीं
बादलों पर झरते हैं उसके पत्ते
लेकिन जड़ों को चाहिए एक आधार और वे
किसी दोपहर सड़क पर चलते एक आदमी के
शरीर में उतर जाती हैं
उसके साथ उसके घर जाती हैं जड़ें
और फैलती हैं दीवारों में भी
आदमी झरता जाता है दीवारों के पलस्तर-सा
जब भी बारिश होती है
उसके स्वप्नों में पत्ते झरते हैं बादलों से
जब दोपहर में आदमी चला जाता है शहर में खपने
तब एक फल गिरता है आँगन में
सुनसान धूप में
और उसके सोते हुए बच्चे की आवाज़ खाने दौड़ती है उसे
मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी
ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी
वो तिरा ग़म हो या ग़म-ए-आफ़ाक़
शम्मअ सी दिल में झिलमिलाती थी
ज़िन्दगी को रह-ए-मोहब्बत में
मौत ख़ुद रौशनी दिखाती थी
जल्वा-गर हो रहा था कोई उधर
धूप इधर फीकी पड़ती जाती थी
ज़िन्दगी ख़ुद को...
Published 06/28/24
सिर छिपाने की जगह | राजेश जोशी
न उन्होंने कुंडी खड़खड़ाई न दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई
अचानक घर के अन्दर तक चले आए वे लोग
उनके सिर और कपड़े कुछ भीगे हुए थे
मैं उनसे कुछ पूछ पाता, इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया
कि शायद तुमने हमें पहचाना नहीं ।
हाँ...पहचानोगे भी कैसे
बहुत बरस हो गए मिले...
Published 06/27/24