Description
फ़ागुन का गीत | केदारनाथ सिंह
गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता!
ये बाँधे नहीं बँधते,
बाँहें रह जातीं खुली की खुली,
ये तोले नहीं तुलते, इस पर
ये आँखें तुली की तुली,
ये कोयल के बोल उड़ा करते, इन्हें थामे हिया रहता!
अनगाए भी ये इतने मीठे
इन्हें गाएँ तो क्या गाएँ,
ये आते, ठहरते, चले जाते
इन्हें पाएँ तो क्या पाएँ
ये टेसू में आग लगा जाते, इन्हें छूने में डर लगता!
ये तन से परे ही परे रहते,
ये मन में नहीं अँटते,
मन इनसे अलग जब हो जाता,
ये काटे नहीं कटते,
ये आँखों के पाहुन बड़े छलिया, इन्हें देखे न मन भरता!
गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता!
औरत की गुलामी | डॉ श्योराज सिंह ‘बेचैन’
किसी आँख में लहू है-
किसी आँख में पानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
पैदा हुई थी जिस दिन-
घर शोक में डूबा था।
बेटे की तरह उसका-
उत्सव नहीं मना था।
बंदिश भरा है बचपन-
बोझिल-सी जवानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
तालीम में कमतर...
Published 06/16/24
चल इंशा अपने गाँव में | इब्ने इंशा
यहाँ उजले उजले रूप बहुत
पर असली कम, बहरूप बहुत
इस पेड़ के नीचे क्या रुकना
जहाँ साये कम,धूप बहुत
चल इंशा अपने गाँव में
बेठेंगे सुख की छाओं में
क्यूँ तेरी आँख सवाली है ?
यहाँ हर एक बात निराली है
इस देस बसेरा मत करना
यहाँ मुफलिस होना गाली है
जहाँ सच्चे रिश्ते...
Published 06/15/24