Description
वहाँ नहीं मिलूँगी मैं | रेणु कश्यप
मैंने लिखा एक-एक करके
हर अहसास को काग़ज़ पर
और सँभालकर रखा उसे फिर
दरअस्ल, छुपाकर
मैंने खटखटाया एक दरवाज़ा
और भाग गई फिर
डर जितने डर
उतने निडर नहीं हम
छुपते-छुपाते जब आख़िर निकलो जंगल से बाहर
जंगल रह जाता है साथ ही
आसमान से झूठ बोलो या सच
समझ जाना ही है उसे
कि दोस्त होते ही हैं ऐसे।
मेरे डरों से पार
एक दुनिया है
तुम वहीं ढूँढ़ रहे हो मुझे
वहाँ नहीं मिलूँगी मैं।
मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी
ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी
वो तिरा ग़म हो या ग़म-ए-आफ़ाक़
शम्मअ सी दिल में झिलमिलाती थी
ज़िन्दगी को रह-ए-मोहब्बत में
मौत ख़ुद रौशनी दिखाती थी
जल्वा-गर हो रहा था कोई उधर
धूप इधर फीकी पड़ती जाती थी
ज़िन्दगी ख़ुद को...
Published 06/28/24
सिर छिपाने की जगह | राजेश जोशी
न उन्होंने कुंडी खड़खड़ाई न दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई
अचानक घर के अन्दर तक चले आए वे लोग
उनके सिर और कपड़े कुछ भीगे हुए थे
मैं उनसे कुछ पूछ पाता, इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया
कि शायद तुमने हमें पहचाना नहीं ।
हाँ...पहचानोगे भी कैसे
बहुत बरस हो गए मिले...
Published 06/27/24