Description
धूप | रूपा सिंह
धूप!!
धधकती, कौंधती, खिलखिलाती
अंधेरों को चीरती, रौशन करती।
मेरी उम्र भी एक धूप थी
अपनी ठण्डी हड्डियों को सेंका करते थे जिसमें तुम!
मेरी आत्मा अब भी एक धूप
अपनी बूढ़ी हड्डियों को गरमाती हूँ जिसमें।
यह धूप उतार दूँगी,
अपने बच्चों के सीने में
ताकि ठण्डी हड्डियों वाली नस्लें
इस जहाँ से ही ख़त्म हो जाएँ।
मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी
ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी
वो तिरा ग़म हो या ग़म-ए-आफ़ाक़
शम्मअ सी दिल में झिलमिलाती थी
ज़िन्दगी को रह-ए-मोहब्बत में
मौत ख़ुद रौशनी दिखाती थी
जल्वा-गर हो रहा था कोई उधर
धूप इधर फीकी पड़ती जाती थी
ज़िन्दगी ख़ुद को...
Published 06/28/24
सिर छिपाने की जगह | राजेश जोशी
न उन्होंने कुंडी खड़खड़ाई न दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई
अचानक घर के अन्दर तक चले आए वे लोग
उनके सिर और कपड़े कुछ भीगे हुए थे
मैं उनसे कुछ पूछ पाता, इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया
कि शायद तुमने हमें पहचाना नहीं ।
हाँ...पहचानोगे भी कैसे
बहुत बरस हो गए मिले...
Published 06/27/24