Prem Karna Ya Phasna | Rupam Mishra
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प्रेम करना या फंसना - रूपम मिश्रा  हम दोनों नए-नए प्रेम में थे उसके हाथ में महँगा-सा फोन था और बाँह में औसत-सी मैं फोन में कई खूबसूरत लड़कियों की तसवीरें दिखाते हुए उसने मुस्कुराते हुए गर्व से कहा, देख रही हो ये सब मुझपे मरती थीं मैंने कहा और तुम! उसने कहा, ज़ाहिर है मैं भी प्रेम करता था मुझे भी थोड़ा रोमांच हुआ मैंने हसरत और थोड़ी रूमानियत से लजाते हुए कहा मेरे भी स्कूल में एक पगलेट-सा लड़का था मुझे बहुत अच्छा लगता था, हम खूब बातें करते थे तब उसने मेरी ओर हिकारत से देखकर कहां अच्छा तो तुम एक पागल से फँसी थी मैं आज तक न समझ पाई भाषा का ये व्याकरण  कि एक ही संवेदना में वो कैसे प्रेम में था और मैं कैसे फँसी थी।
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मेरे बेटे | कविता कादम्बरी मेरे बेटे                                                       कभी इतने ऊँचे मत होना  कि कंधे पर सिर रखकर कोई रोना चाहे तो  उसे लगानी पड़े सीढ़ियाँ  न कभी इतने बुद्धिजीवी  कि मेहनतकशों के रंग से अलग हो जाए तुम्हारा रंग  इतने इज़्ज़तदार भी न होना  कि मुँह के बल गिरो तो...
Published 06/26/24
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Published 06/25/24
Published 06/25/24