Baad Ke Dinon Mein Premikayein | Rupam Mishra
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Description
बाद के दिनों में  प्रेमिकाएँ | रूपम मिश्रा  बाद के दिनों में प्रेमिकाएँ पत्नियाँ बन गईं वे सहेजने लगीं प्रेमी को जैसे मुफलिसी के दिनों में अम्मा घी की गगरी सहेजती थीं वे दिन भर के इन्तजार के बाद भी ड्राइव करते प्रेमी से फोन पर बात नहीं करतीं वे लड़ने लगीं कम सोने और ज़्यादा शराब पीने पर प्रेमी जो पहले ही घर में बिनशी पत्नी से परेशान था अब प्रेमिका से खीजने लगा वो सिर झटक कर सोचता कि कहीं गलती से उसने फिर से तो एक ब्याह नहीं कर लिया पत्नियाँ जो कि फोन पर पति की लरजती मुस्कान देख खरमनशायन रहतीं उनकी अधबनी पूर्वधारणाएँ गझिन होतीं प्रेमी यहाँ भी चूकते, वे मुस्कान और सम्बन्ध दोनों सहेजने में नाकाम होते जबकि प्रेमिकाएँ यहाँ भी ज़िम्मेदार ही साबित रहीं वे खचाखच भरी मेट्रो और बस में भी हँसी के साथ इमेज भी मैनेज करतीं प्रेमिकाएँ भी खुद के पत्नी बनने पर थोड़ी-सी हैरान ही थीं आख़िर ये पत्नीपना हममें आता कहाँ से है प्रेमी खिसियाए रहे कि ये लड़कियाँ कभी कायदे से आधुनिक नहीं हो सकतीं हमेशा बीती बातें, बीती रातों के ही गीत गाती हैं  ख़ैर ये वो प्रेमी नहीं थे जो प्रेमिका का फोन खुद रिचार्ज कराते बाद उसका रोना रोते ये करिअरिज्म व बाजार के दरमेसे प्रेमी थे जो जीवन की दौड़ में सरपट भाग रहे थे और इस दौड़ारी में प्रेम उनकी जेब से अक्सर गिर कर बिला जाता है।
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मौत इक गीत रात गाती थी ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में तेरी तस्वीर उतरती जाती थी वो तिरा ग़म हो या ग़म-ए-आफ़ाक़ शम्मअ  सी दिल में झिलमिलाती थी ज़िन्दगी  को रह-ए-मोहब्बत में मौत ख़ुद रौशनी दिखाती थी जल्वा-गर हो रहा था कोई उधर धूप इधर फीकी पड़ती जाती थी ज़िन्दगी ख़ुद को...
Published 06/28/24
सिर छिपाने की जगह  | राजेश जोशी  न उन्होंने कुंडी खड़खड़ाई न दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई अचानक घर के अन्दर तक चले आए वे लोग उनके सिर और कपड़े कुछ भीगे हुए थे मैं उनसे कुछ पूछ पाता, इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि शायद तुमने हमें पहचाना नहीं । हाँ...पहचानोगे भी कैसे बहुत बरस हो गए मिले...
Published 06/27/24
Published 06/27/24